UN में तालिबान के समर्थन में खुलकर आया भारत, पाकिस्तान को कैसे उसी के फंदे में जकड़ रहा?
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की कूटनीतिक पकड़ लगातार मजबूत होती जा रही है, और यह विशेष रूप से अफगानिस्तान और पाकिस्तान से संबंधित मामलों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। संयुक्त राष्ट्र में भारत की हालिया स्थिति ने कई पर्यवेक्षकों को चौंका दिया है, क्योंकि नई दिल्ली ने तालिबान के साथ एक जटिल जुड़ाव का संकेत दिया है, जिसे कुछ लोग 'समर्थन' के रूप में देख रहे हैं। हालांकि, इस 'समर्थन' के पीछे एक गहरी भू-राजनीतिक रणनीति छिपी है, जिसका उद्देश्य पाकिस्तान को उसके अपने ही कुकर्मों के जाल में फंसाना है।
UN में तालिबान के समर्थन में खुलकर आया भारत, पाकिस्तान को कैसे उसी के फंदे में जकड़ रहा?
घटना का सारांश — कौन, क्या, कब, कहाँ
नई दिल्ली, 22 नवंबर, 2023: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) और संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) में अफगानिस्तान से संबंधित विभिन्न बहसों के दौरान, भारत ने एक सावधानीपूर्वक कूटनीतिक रुख अपनाया है। जबकि अधिकांश पश्चिमी राष्ट्र तालिबान शासन को मान्यता देने से लगातार इनकार कर रहे हैं और मानवाधिकारों के हनन, विशेष रूप से महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं, भारत ने एक अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया है। भारत ने जोर देकर कहा है कि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल किसी भी देश के खिलाफ आतंकवाद के लिए नहीं किया जाना चाहिए, और उसने अफगानिस्तान को मानवीय सहायता प्रदान करने के लिए तालिबान के साथ 'प्रभावी जुड़ाव' की आवश्यकता पर बल दिया है।
यह रुख तब और मुखर हुआ जब भारत ने अफगानिस्तान को मानवीय सहायता जारी रखने और वहां की जनता तक पहुंचने के लिए एक मार्ग तलाशने की बात कही, भले ही काबुल में डी-फैक्टो सत्ता पर तालिबान का कब्जा हो। इस रणनीति का मुख्य लक्ष्य अफगानिस्तान में स्थिरता बनाए रखना और सुनिश्चित करना है कि यह आतंकवादियों के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह न बने। यह कदम ऐसे समय में आया है जब पाकिस्तान स्वयं FATF जैसी अंतरराष्ट्रीय निगरानी संस्थाओं की जांच के दायरे में रहा है, जिस पर आतंकवाद के वित्तपोषण और मनी लॉन्ड्रिंग से निपटने में विफल रहने का आरोप है। भारत की यह पहल पाकिस्तान के लिए एक कूटनीतिक चुनौती खड़ी करती है, क्योंकि यह उसके ऐतिहासिक दोहरे मानदंडों को उजागर करती है।
UN में तालिबान के समर्थन में खुलकर आया भारत, पाकिस्तान को कैसे उसी के फंदे में जकड़ रहा? — प्रमुख बयान और संदर्भ
भारत ने संयुक्त राष्ट्र में लगातार इस बात पर जोर दिया है कि अफगानिस्तान में एक समावेशी सरकार का गठन होना चाहिए, जो वहां के सभी जातीय और भाषाई समूहों का प्रतिनिधित्व करे। भारतीय राजनयिकों ने स्पष्ट किया है कि भले ही भारत तालिबान को औपचारिक रूप से मान्यता न दे, लेकिन अफगानिस्तान की जनता को सहायता प्रदान करने और क्षेत्र में सुरक्षा हितों की रक्षा के लिए 'प्रभावी संचार' आवश्यक है। भारत का यह रुख तालिबान के शासन को एक तरह से 'मानवीय मजबूरी' के तहत स्वीकार करने जैसा है, जबकि इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल पाकिस्तान-आधारित या किसी अन्य आतंकवादी समूह द्वारा भारत के खिलाफ न किया जाए।
इसके विपरीत, पाकिस्तान ने दशकों से अफगानिस्तान में अपनी रणनीतिक गहराई (strategic depth) की अवधारणा के तहत तालिबान और अन्य चरमपंथी समूहों को समर्थन दिया है। इस समर्थन ने पाकिस्तान को खुद ही अस्थिरता के गहरे दलदल में धकेल दिया है, क्योंकि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) जैसे समूह अब उसी के खिलाफ मुड़ गए हैं। संयुक्त राष्ट्र में भारत ने इस बात को कई बार रेखांकित किया है कि आतंकवाद को 'अच्छा' या 'बुरा' के रूप में नहीं देखा जा सकता और सभी प्रकार के आतंकवाद से समान रूप से लड़ा जाना चाहिए। इस बयानबाजी ने परोक्ष रूप से पाकिस्तान की उस नीति को उजागर किया है जिसमें वह कुछ समूहों को 'संपत्ति' के रूप में इस्तेमाल करता रहा है।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र में अफगानिस्तान को लेकर अपनी चिंताएं स्पष्ट की हैं, जिसमें मादक पदार्थों की तस्करी, अवैध हथियार व्यापार और आतंकवाद के बीच गठजोड़ शामिल है। इन सभी मुद्दों का सीधा संबंध पाकिस्तान की सीमा पार गतिविधियों और उसकी अपनी आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों से है। भारत का स्पष्ट संदेश है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अफगानिस्तान में जमीनी हकीकत को स्वीकार करते हुए, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ कोई रियायत न देते हुए, एक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाना होगा। भारत की यह रणनीति पाकिस्तान को उन अंतरराष्ट्रीय दबावों में और अधिक जकड़ रही है, जिनसे वह लंबे समय से बचने की कोशिश कर रहा है।
भारत ने विशेष रूप से UN प्रस्तावों, जैसे UNSCR 2593 (2021), पर जोर दिया है, जो स्पष्ट रूप से मांग करता है कि अफगान क्षेत्र का उपयोग किसी भी देश को धमकी देने या हमला करने या आतंकवादियों को आश्रय देने या प्रशिक्षित करने, या आतंकवादी हमलों की योजना बनाने या वित्तपोषण करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। भारत का 'तालिबान के साथ प्रभावी जुड़ाव' का आह्वान इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय को याद दिलाता है कि अफगानिस्तान में शांति और सुरक्षा क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है, और पाकिस्तान की सीमा पार आतंकवाद की नीति इस शांति को बाधित करती है। इस तरह, भारत अपनी कूटनीति के माध्यम से पाकिस्तान को उसी के द्वारा बुने गए आतंकवाद के जाल में फंसा रहा है।
पार्टियों की प्रतिक्रिया
भारत के इस कूटनीतिक रुख पर देश के भीतर और बाहर विभिन्न राजनीतिक दलों और अंतरराष्ट्रीय निकायों की मिली-जुली प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं। भारत में सत्तारूढ़ भाजपा ने इस कदम को एक 'मास्टरस्ट्रोक' बताया है, जो राष्ट्रीय हितों को साधने और क्षेत्र में भारत की स्थिति को मजबूत करने वाला है। उनका तर्क है कि यह एक व्यावहारिक नीति है जो अफगानिस्तान की जटिलताओं को समझती है और भारत की सुरक्षा चिंताओं को संबोधित करती है। उनका मानना है कि तालिबान से सीधे तौर पर जुड़ना, भले ही औपचारिक मान्यता न हो, भारत को अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने और मानवीय सहायता प्रदान करने का अवसर देता है।
वहीं, विपक्षी दलों ने इस नीति पर सतर्कता व्यक्त की है। कुछ ने चिंता जताई है कि तालिबान के साथ किसी भी प्रकार का 'जुड़ाव' मानवाधिकारों के उल्लंघन और महिलाओं के अधिकारों पर उनके दमनकारी शासन को वैधता प्रदान कर सकता है। कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि, "तालिबान के साथ सीधा संवाद जरूरी हो सकता है, लेकिन यह सुनिश्चित करना होगा कि हम नैतिक मूल्यों और अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों से समझौता न करें।" उन्होंने सरकार से यह स्पष्ट करने का भी आग्रह किया है कि इस जुड़ाव की सीमा क्या है और इससे भारत की दीर्घकालिक रणनीतिक स्थिति कैसे प्रभावित होगी।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, पाकिस्तान ने भारत के इस कदम को 'पाखंड' बताते हुए खारिज करने की कोशिश की है। पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने दावा किया कि भारत एक तरफ आतंकवाद पर वैश्विक रुख की बात करता है और दूसरी तरफ ऐसे समूह से जुड़ रहा है जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक आतंकवादी संगठन माना जाता है। हालांकि, पाकिस्तान स्वयं तालिबान से ऐतिहासिक संबंधों और उसके साथ विभिन्न स्तरों पर संपर्क बनाए रखने के आरोपों से घिरा हुआ है, जिससे उसकी आलोचना खोखली प्रतीत होती है। संयुक्त राष्ट्र में कई सदस्य देशों ने भारत के व्यावहारिक दृष्टिकोण को समझा है, खासकर मानवीय संकट और आतंकवाद के खतरों को देखते हुए।
मध्य एशियाई देशों और रूस ने अक्सर भारत के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया है कि अफगानिस्तान में व्यावहारिक जुड़ाव आवश्यक है, ताकि क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित की जा सके। वहीं, पश्चिमी देशों ने भारत की चिंताओं को समझा है लेकिन अभी भी तालिबान शासन के मानवाधिकार रिकॉर्ड पर अधिक कठोर रुख बनाए हुए हैं। कुल मिलाकर, भारत की नीति एक जटिल भू-राजनीतिक परिदृश्य में विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हितों को संतुलित करने का प्रयास है, जिस पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आना स्वाभाविक है।
राजनीतिक विश्लेषण / प्रभाव और मायने
भारत की यह कूटनीतिक चाल कई मायनों में महत्वपूर्ण है। पहला, यह अफगानिस्तान में बदलती भू-राजनीतिक वास्तविकताओं के प्रति एक व्यावहारिक दृष्टिकोण दर्शाती है। तालिबान के सत्ता में आने के बाद से, भारत ने काबुल में अपनी उपस्थिति बनाए रखी है और मानवीय सहायता के माध्यम से अफगान लोगों के साथ जुड़ाव बनाए रखने की कोशिश की है। यह रणनीति भारत को अफगानिस्तान में अपना प्रभाव पूरी तरह से खोने से बचाती है, जबकि पाकिस्तान और चीन जैसे क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों के बढ़ते प्रभाव को संतुलित करने में मदद करती है।
दूसरा, यह रणनीति पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने और अधिक बेनकाब करती है। जब भारत अफगानिस्तान में आतंकवाद पर लगाम लगाने और क्षेत्रीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए 'प्रभावी जुड़ाव' की बात करता है, तो यह परोक्ष रूप से पाकिस्तान पर दबाव डालता है कि वह अपने देश में मौजूद आतंकवादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करे। पाकिस्तान पर FATF के ग्रे लिस्ट में रहने और सीमा पार आतंकवाद को समर्थन देने के आरोप लगते रहे हैं। भारत का यह रुख पाकिस्तान के दोहरे मानदंडों को उजागर करता है, जिससे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ जाता है।
तीसरा, यह भारत की 'फर्स्ट नेबरहुड' नीति का भी विस्तार है, जिसमें पड़ोसी देशों के साथ संबंध मजबूत करने पर जोर दिया जाता है। अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता भारत के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कोई भी अस्थिरता क्षेत्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सकती है और भारत की सुरक्षा को सीधे खतरा पहुंचा सकती है। तालिबान के साथ एक चैनल खुला रखने से भारत को अपनी सुरक्षा चिंताओं को सीधे उठाने और संभावित खतरों को कम करने का अवसर मिलता है, खासकर भारत विरोधी आतंकवादी समूहों को अफगान धरती से संचालित होने से रोकने के लिए।
चौथा, इस कदम से भारत को अफगानिस्तान में अपने पिछले निवेशों की रक्षा करने का भी मौका मिलता है। भारत ने अफगानिस्तान में सड़कों, बांधों और संसद भवन सहित विभिन्न विकास परियोजनाओं में अरबों डॉलर का निवेश किया है। तालिबान के साथ न्यूनतम जुड़ाव इन परिसंपत्तियों को पूरी तरह से खोने से बचाने में मदद कर सकता है और भविष्य में पुनर्निर्माण प्रयासों में भारत की भूमिका के लिए दरवाजे खुले रख सकता है। यह एक जोखिम भरी लेकिन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण चाल है, जो भारत को एक जिम्मेदार क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित करती है, जबकि पाकिस्तान को उसकी अपनी आतंकवाद-समर्थक नीतियों के परिणामों का सामना करने के लिए मजबूर करती है।
क्या देखें
- तालिबान की प्रतिक्रिया और व्यवहार: यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत के इस व्यावहारिक दृष्टिकोण के जवाब में तालिबान अपने शासन में मानवाधिकारों, विशेषकर महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों को लेकर क्या बदलाव लाता है।
- मानवीय सहायता का प्रवाह: क्या भारत और अन्य देश अफगानिस्तान को मानवीय सहायता सफलतापूर्वक पहुंचा पाएंगे, और क्या तालिबान इस प्रक्रिया में सहयोग करेगा?
- पाकिस्तान की कूटनीतिक चालें: पाकिस्तान भारत की इस रणनीति पर क्या प्रतिक्रिया देता है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी स्थिति को कैसे बचाने का प्रयास करता है।
- क्षेत्रीय सुरक्षा सहयोग: मध्य एशिया के देशों और ईरान जैसे अन्य क्षेत्रीय खिलाड़ियों के साथ भारत का अफगानिस्तान पर समन्वय और सहयोग कैसे विकसित होता है।
- आतंकवाद विरोधी प्रयासों का प्रभाव: क्या अफगानिस्तान की धरती से भारत विरोधी आतंकवादी गतिविधियों में कमी आती है, जो भारत के जुड़ाव का एक प्रमुख लक्ष्य है।
निष्कर्ष — आगे की संभावनाएँ
संयुक्त राष्ट्र में भारत का अफगानिस्तान संबंधी रुख एक जटिल भू-राजनीतिक खेल का हिस्सा है, जहाँ भारत अपने राष्ट्रीय हितों और क्षेत्रीय स्थिरता को साधने के लिए एक साहसिक कूटनीतिक चाल चल रहा है। तालिबान के साथ 'प्रभावी जुड़ाव' का आह्वान, भले ही औपचारिक मान्यता न हो, एक व्यावहारिक नीति है जो अफगानिस्तान में एक बड़ी मानवीय त्रासदी को रोकने और भारत की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने पर केंद्रित है। यह रणनीति पाकिस्तान को उसके आतंकवाद-समर्थक नीतियों के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव में धकेलती है, जिससे वह अपने ही जाल में फंस जाता है।
भविष्य में, भारत को इस नीति को सावधानीपूर्वक आगे बढ़ाना होगा, ताकि मानवाधिकारों के सिद्धांतों से समझौता किए बिना अफगानिस्तान में स्थिरता सुनिश्चित की जा सके। यह नीति भारत को क्षेत्रीय शक्ति के रूप में अपनी स्थिति मजबूत करने का अवसर प्रदान करती है, जबकि पाकिस्तान को अपनी अस्थिर नीतियों के परिणामों का सामना करने के लिए मजबूर करती है। यह देखना बाकी है कि यह जटिल संतुलन कार्य भारत के लिए दीर्घकालिक रूप से कितना सफल साबित होता है और क्षेत्रीय भू-राजनीति पर इसका क्या स्थायी प्रभाव पड़ता है।
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